ब्रिजिंग द गैप
जब कोई ट्रेन किसी पुल पर से गुजरती नजर आती है तो दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियॉं बरबस ही याद आने लग जाती हैं कि तू किसी ट्रेन सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ… यह अलग बात है कि जब ट्रेन में हम खुद बैठे हों तो पुल के साथ-साथ दिल भी थरथराने लग जाता है…. लेकिन कविता से बाहर निकलकर जब हम यथार्थ में वापस आते हैं तो वाकई उन कारीगरों की सराहना करने का मन होता है, जिन्होंने ऐसे मजबूत पुल बनाये जो दूरी को तो पाटते ही हैं, साथ ही सुरक्षा का भी एहसास कराते हैं.
- संदीप अग्रवाल
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